मसअला 604. मुसलमान शव को ग़ुस्ल और कफ़न देना वाजिब है (जैसा कि पहले बयान किया जा चुका है) लेकिन दो प्रकार के लोग इस से अलग है।
1. जो लोग इसलाम के लिए जंग के मैदान में पैग़म्बर (स) मासूम इमाम (अ) या उनके विषेश नाएब के साथ क़त्ल किए जाएं जिनको शहीदे राहे ख़ुदा कहा जाता है, इसी प्रकार जो लोग इमामे ज़माना (अ) की ग़ैबत (जिसमें इमाम लोगों की नज़रों से ओझल होता है) के काल में इस्लाम के दुश्मनों से जंग करते हुए क़त्ल हो जाएं, चाहे मर्द हों या औरत, बड़े हों या छोटे, इन लोगों के लिए ग़ुस्ल और कफ़न और हुनूत वाजिब नही है बल्कि उन लोगों को उनके कपड़े में ही नमाज़ पढ़ कर दफ़्न कर दिया जाएगा।
2. शायद लिखा नही गया है
मसअला 605. ऊपर बयान किया हुआ आदेश उन लोगों के लिए भी है जो जंग के मैदान में क़त्ल किए गए हों यानि इससे पहले कि मुसलमान लोग उन तक पहुंचे वह मर चुके हों लेकिन अगर मुसलमान लोग उन तक पहुंच जाएं और वह जीवित हों या घायल अवस्था में उनकों जंग के मैदान से बाहर लाया जाए और वह अस्पताल या किसी और स्थान पर मर जाए तो अगरचे उसको शहीद का सवाब तो मिलेगा लेकिन ऊपर वाले अहकाम (ग़ुस्ल कफ़न आदि) उसके लिए जारी नही होगें।
मसअला 606. आज से समय की जंगों में जंगा का मैदान काफ़ी बड़ा होता है कभी कभी तो कई किलो मीटरों और फ़रसख़ों के हिसाब से होता है और दुश्मनों की गोलियां और गोले दूर कर पहुंच जाते हैं और वह पूरा भूखंड जहां फ़ौजें एकत्र होती है मैदाने जंग माना जाता है तो अगर दुश्मन जंग के मोरचे से दूर लोगों पर बमबारी करके उनको क़त्ल कर दे तो ऐसे समय में ऊपर वाला नियम जारी नही होगा।
मसअला 607. अगर किसी कारणवश शहीद के बदन पर कपड़ा नही रह गया हो तो उसको कफ़न देना चाहिए और बिना ग़ुस्ल के दफ़्न कर देना चाहिए।
मसअला 608. जिन लोगों का क़त्ल क़िसास (जिसने किसी को क़त्ल किया हो उसकी सज़ा) या धार्मिक सज़ा के कारण वाजिब हुआ हो और हाकिमे शरअ (जज) ने उनको आदेश दिया हो कि वह लोग ग़ुस्ल मैय्यत को अपने जीवन में ही कर लें और वह लोग तीनों ग़ुस्ल कर लेते हैं और कफ़न के तीन टुकड़ों में से दो टुकड़े (लुंगी और क़मीज़) को पहन लेते हैं और मृतक के तरह हुनूत कर लेते हैं तो उनके क़त्ल के बाद केवल उन पर नमाज़ पढ़ी जाएगी और उसी अवस्था में उनको दफ़्न कर दिया जाएगा और यह भी आवश्यक नही है कि उनके कफ़न से ख़ून को धोया जाए, बल्कि अगर डर और ख़ौफ़ के कारण (पाख़ाना या पेशाब ) से अपवित्र कर लें तो दोबारा ग़ुस्ल देना आवश्यक नही है।