मसअला 373. जनाबत दूर करने के लिए और पवित्र होने के लिए जनाबत का ग़ुस्ल करना मुसतहिब है, लेकिन वाजिब नमाज़ों के लिए जनाबत का ग़ुस्ल वाजिब है, मुर्दे की नमाज़, शुक्र का सजदा, क़ुरआन के वाजेबी सजदे (जब वाजिब सजदे की आयते को पढ़े या किसी दूसरे को पढ़ते हुए सुने तक का सजदा) के लिए जनाबत का ग़ुस्ल वाजिब नही है। बल्कि उन कार्यो को जनाबत की अवस्था में किया जा सकता है। अगरचे बेहतर यही है कि मुर्दे की नमाज़ और शुक्र का सजदा और इसी प्रकार की चीज़ों के लिए ग़ुस्ल करे।
मसअला 374. जनाबत का ग़ुस्ल करते समय वाजिब या मुसतहिब की नियत करना आवश्यक नही है केवल क़सदे क़ुरबत और ईश्वर के आदेश के पालन की ख़ातिर कर लेना काफ़ी है।
मसअला 375. अगर किसी को विश्वास हो जाए कि नमाज़ का समय आ गया है और वह वाजिब की नियत से ग़ुस्ल करे और बाद में पता चले कि ग़ुस्ल समय से पहले किया था तो उसका ग़ुस्ल सही है। इसी प्रकार अगर नमाज़ की नियत से वाजिब ग़ुस्ल करे बाद में पता चले कि समय समाप्त हो चुका था तो उसका ग़ुस्ल सही है।
मसअला 376. ग़ुस्ल चाहे वाजिब हो या मुसतहिब दो प्रकार से किया जा सकता है, तरतीबी और इर्तेमासी।